लेखनी कविता - शोर यूँ ही न परिंदों ने मचाया होगा - कैफ़ी आज़मी
शोर यूँ ही न परिंदों ने मचाया होगा / कैफ़ी आज़मी
शोर यूँ ही न परिंदों[1] ने मचाया होगा,
कोई जंगल की तरफ़ शहर से आया होगा।
पेड़ के काटने वालों को ये मालूम तो था,
जिस्म जल जाएँगे जब सर पे न साया होगा।
बानी-ए-जश्ने-बहाराँ[2] ने ये सोचा भी नहीं
किस ने काटों को लहू अपना पिलाया होगा।
अपने जंगल से जो घबरा के उड़े थे प्यासे,
ये सराब[3] उन को समंदर नज़र आया होगा।
बिजली के तार पर बैठा हुआ तनहा पंछी,
सोचता है कि वो जंगल तो पराया होगा।
शब्दार्थ
1 पक्षियों
2 वसन्तोत्सव के प्रेरणा स्रोतों
3 धोखा